अम्बेडकरनगर।। किछौछा शरीफ प्रसिद्ध सूफी संत सैय्यद हजरत मखदूम अशरफ जहांगीर अशरफी की दरगाह के नाम से जाना जाता है। उनका जन्म ईरान में सेमनान में हुआ था और विशेष रूप से चिश्ती पद्धति को आगे बढ़ाने में उन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया। इन संत ने बहुत यात्राएं की और लोगों तक शान्ति का सन्देश पहुँचाया। किछौछा दरगाह शरीफ एक छोटी पहाड़ी पर बना है, जो कि एक ताल से घिरा हुआ है। सम्पूर्ण परिसर संगमरमर, टाइल्स और कांच से सजाया गया है। साल भर हजारों की तादाद में श्रद्धालु भारत और दुनिया भर से इस दरगाह पर आते हैं।
अम्बेडकर नगर जनपद में स्थित प्रसिद्व सूफी सन्त हजरत मखदूम अशरफ की अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध किछौछा दरगाह आज भी हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई समेत विभिन्न धर्मों के लाखों अनुयायियों के लिए भक्ति, आस्था व श्रद्वा का एक ऐसा केन्द्र है जहॉ दुखियारे और परेशान हाल लोग रोते हुए आते है और दर्शन करने के उपरान्त मुस्कुराते हुए अपने घरों को लौटते हैं। इसलिए इस दरगाह को रूहानी (अध्यात्मिक) इलाज का सबसे बडा केन्द्र भी कहा जाता है।
समरकन्द, मुल्तान, दिल्ली, विहार, बंगाल, जौनपुर होते हुए अन्त में हजरत मखदूम अशरफ किछौछा पहुॅंचे यहॉ रहकर मखदूम अशरफ ने अपने जीवनकाल में गरीबों, मजलूमों, बीमार लोगों के घावों जख्मों पर इन्सानियत का मरहम लगाते रहे। उनके आशीर्वाद और अदभुत दिब्य शक्ति से मानसिक रोगी, भूतप्रेत, सफेद दाग, दमा कोढ, समेत अन्य मरीज स्वास्थ्य लाभ करने लगे। ऐसे ही परेशान हाल लोगों के लिए हजरत मखदूम ने किछौछा दरगाह में एक गोल चौकोर तालाब की खुदाई करवाई जिसमें सऊदी अरब के मशहूर कुआं आबेजमजम से सात बार जल मगाकर उसे भरा जिसे आज नीर शरीफ कहा जाता है।
ईरान से भारत आए हजरत मखदूम
ईरान के सिमनान कस्बे में 707 हिजरी (सन 1286 ) में सूफी सन्त मखदूम अशरफ का जन्म हुआ था। बचपन से ही मखदूम साहब फकीरी, साधुत्व व ईश्वर प्रेम में लीन रहा करते थे। जब मखदूम साहब 15 वर्ष के थे त्यों ही उनके बादशाह पिता इब्राहिम का स्वर्गवास हो गया था परिणामस्वरूप आपको उनका उत्तराधिकारी चुना गया कुछ वर्षों तक राजपाट चलाने के बाद आपकी यह दिली मन्शा थी कि अपने छोटे भाई सै़ मोहम्मद को राजसिहांसन सौंप कर ईश्वर की अराधना व तपस्या में लीन हो जाए। ऐसी मान्यता है कि ईरान के सिमनान में एक प्रार्थना सभा स्थल पर वह इबादत कर रहे थे तभी ईश्वरीय सन्देश प्राप्त हुआ कि राज सिहांसन का परित्याग करके ऐ मखदूम अशरफ फकीरी की मंजिल पाने के लिए हिन्दुस्तान की तरफ कूच कर जाओ। 808 हिजरी (सन 1387) में हजरत मखदूम ने मानव जाति की सेवा करते हुए आखिरी सॉस ली और इस दुनिया को अलविदा कहा।
किछौछा दरगाह का सबसे महत्वपूर्ण सालाना (वार्षिक) उर्स मेला
किछौछा दरगाह शरीफ में सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ जहांगीर सिमनानी रहमतुल्लाह अलैह के मजार पर कई मेले लगते हैं। उसमें सबसे महत्वपूर्ण सालाना उर्स मेला माना जाता है। प्रत्येक वर्ष उर्दू माह के मोहर्रम के महीने में इस मेले का आयोजन होता है। यह मेला मोहर्रम माह के 25 तारीख से लेकर 28 मोहर्रम तक चलता है। चूंकि सूफी संत मखदूम अशरफ का देहान्त 28 मोहर्रम को ही हुआ था। इसलिए सालाना उर्स के दौरान 28 मोहर्रम के दिन का काफी महत्व है। परम्परा के अनुसार सालाना उर्स के मौके पर ही सज्जादानशीन तोहफा व उपहार में सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ को मिले सैकड़ों वर्ष पुराने ऐतिहासिक महत्व वाले खिरका मुबारक (झुब्बा नुमा पोशाक) पहनकर व परिधान के अन्य वस्तुओं को धारण करके खिरका पोशी की रश्म को अदा करता है। मखदूम साहब के परिधान का दर्शन करने के लिए उर्स के दौरान देशभर के लाखों श्रद्धालुओं का दरगाह परिसर में मजमा लगा रहता है।
25 से 28 मोहर्रम तक चलने वाले उर्स के दौरान भारत के विभिन्न प्रान्तों-शहरों के अनुमान के मुताबिक लगभग 1 लाख से लेकर 6 लाख तक श्रद्धालु दरगाह परिसर में डेरा डाले रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि उर्स के मौके पर सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ की पोशाक सहित अन्य वस्तुओं के दर्शन करके दोवाएं मांगने से मन्नतें-मुरादें पूरी होती हैं।
किछौछा दरगाह में 8 दिवसीय मोहर्रम का मेला
किछौछा दरगाह शरीफ में हजरत मखदूम अशरफ के मजार पर 8 दिवसीय मोहर्रम के रात्रि जुलूस के मेले का आयोजन होता है। उर्दू माह मोहर्रम की 3 तारीख से लेकर 10 मोहर्रम तक यह मेला जारी रहता है। दरगाह शरीफ के आस्ताने (मुख्य स्थान) से मोहर्रम की 3 तारीख से चैकी, अलम, निशान व ताजिए का जुलूस निकलता है। प्रत्येक दिवस रात्रि 9 बजे से आस्ताने से मलंग गेट, गौसिया मस्जिद मार्ग होते हुए अंत में ऐतिहासिक सलामी फाटक के निकट यह जुलूस पहुंचता है। 7 मोहर्रम को दिन में भी आस्ताने से जुलूस निकाला जाता है। 9 मोहर्रम को दरगाह शरीफ से ऐतिहासिक बड़ी ताजिया निकाली जाती है। खास बात यह है कि दरगाह शरीफ की चादर से ही उक्त ताजिए का निर्माण कराया जाता है। 10 मोहर्रम को 8 दिनों तक जारी रहने वाले मोहर्रम के ऐतिहासिक रात्रि जुलूस का समापन होता है। लगभग 627 वर्ष पुराने ऐतिहासिक व प्राचीन पवित्र तालाब ‘‘नीर शरीफ’’ के तट पर दरगाह शरीफ की बड़ी ताजियों के साथ ही अन्य छोटी-बड़ी ताजियों को भी दफनाया जाता है। 8 दिनों तक जारी रहने वाले मोहर्रम के जुलूस में करीब 3 लाख श्रद्धालु सहभागिता करते हैं। आगे-आगे अलम, निशान व ताजिया चला करती हैं। और इसके पीछे-पीछे देशभर के श्रद्धालु मनौती के तौर पर चला करते हैं। 10 मोहर्रम के दिन रेकार्ड तोड़ संख्या में यहां श्रद्धालु पहुंचते हैं। और दरगाह शरीफ के ताजिए के जुलूस का दृश्य देखते ही बनता है।
किछौछा दरगाह का अगहन मेला
किछौछा दरगाह शरीफ में सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ के मजार पर प्रत्येक वर्ष अगहन के मेले में प्रकाश पर्व ‘‘दीपावली’’ से 40 दिवसीय ‘अगहन मेला’ प्रारम्भ होता है। 40 दिनों तक चलने वाले मेले में शहरी श्रद्धालुओं की अपेक्षा ग्रामीणांचलों के तीर्थ यात्री भारी संख्या में सहभागिता करते हैं। उर्स मेला में जहां दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, मुम्बई, हैदराबाद, पटना, लखनऊ सहित अन्य शहरों के श्रद्धालु का आगमन होता है। वहीं, अगहन मेले में बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश के गोण्डा, बहराइच, बस्ती, श्रावस्ती, जौनपुर, मऊ, वाराणसी, बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, चन्दौली, सोनभद्र, मिर्जापुर सहित विभिन्न जनपदों के ग्रामीण श्रद्धालु/देहाती किसान ही मुख्य रूप से सहभागिता करते हैं। 40 दिनांे तक जारी रहने वाले अगहन मेला में दीपावली, एकादशी व प्रत्येक वृहस्पतिवार को मेले का महत्वपूर्ण दिवस माना जाता है।
दीपावली की रात में 627 वर्ष पुराने तालाब के तट पर श्रद्धालु मोमबत्ती, घी के लाखों दीये रोशन करते हैं। खुशबूदार अगरबत्तियों को दरगाह परिसर में जलाते हैं। इस दिवस को ‘‘दीपोत्सव’’ भी कहते हैं। घी के दीये की रोशनी तथा अगरबत्ती की खुशबू व ऊपर उठते धुएं के कारण दरगाह परिसर के आस-पास का पूरा आसमान काले धुंए से पट जाता है। जिसे अगहन मेला का असली तेवर कहा जाता है। अगहन मेला की विशेषता यह है कि धान की कटाई होने के बाद श्रद्धालु दरगाह के भिक्षुओं में दान करने के लिए अपने घर से अनाज, आटा, चावल, दाल सहित अन्य खाद्यान्न सामाग्री लाते हैं। मनौती वाले छोटे बच्चों के सिर का मुण्डन भी खूब करवाया जाता है। मुण्डन के दौरान ग्रामीण महिलाएं भोजपुरी लोकगीत, अवधीगीत भी गाती हैं। कौव्वालियों का भी खूब आयोजन होता है। अगहन मेला में ज्यादातर श्रद्धालु कौव्वाली के साथ ही मखदूम साहब के मजार पर चादर चढ़ाने जाते हैं। यहां ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि अगहन मेले में 80 प्रतिशत हिन्दू समाज के तथा 20 प्रतिशत मुस्लिम समाज के श्रद्धालु की शिरकत करते हैं।
किछौछा दरगाह में दो दिवसीय गुस्ल मुबारक का मेला
किछौछा दरगाह शरीफ में सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ के मजार पर दो दिवसीय गुस्ल मुबारक के मेले का भी आयोजन होता है। बहराइच दरगाह, बाराबंकी की देवां शरीफ दरगाह, उत्तरांचल की कलियर शरीफ दरगाह, राजस्थान की अजमेर शरीफ दरगाह सहित अन्य दरगाहों पर प्रायः रौजे मुबारक (समाधि) को गुस्ल दिया जाता है। लेकिन परम्परा के अनुसार किछौछा दरगाह में साल में केवल एक बार मखदूम साहब के मजार को गुस्ल दिया जाता है। जिसे गुस्ल मुबारक कहते हैं। गुस्ल मुबारक के मौके पर दो दिवसीय मेला आयोजित होता है।
गुस्ल मुबारक के पहले दिन आस्ताने पर शाम को जलसा शुरू हो जाता है जलसे के दौरान सभी वक्ता सूफी संत मखदूम अशरफ के जीवन की विस्तृत चर्चा करते हैं। और उनकी शान में कसीदे पढ़े जाते हैं। शाम को शुरू हुआ यह जलसा दूसरे दिन तड़के 4 बजे खत्म होता है। जलसे के समापन के बाद मखदूम साहब के मजार को 40 घड़ा गुलाब व केवड़ा जल से गुस्ल दिया जाता है। मजार शरीफ को गुस्ल देने के बाद जायरीनों में गुस्ल का पानी वितरित किया जाता है। हिन्दू-मुस्लिम, सिक्ख व ईसाई प्रायः सभी धर्मों के लोग गुस्ल का पानी अपने घर ले जाते हैं। और आस्था के रूप में इस जल का सेवन करते हैं। मानसिक बीमारी, सफेद दाग, कोढ़, चरक, दमा, भूत-प्रेत सहित अन्य रोगों के ग्रसित मरीज गुस्ल के पानी का सेवन करता है। यहां ऐसी मान्यता है कि उक्त बीमारियों से पीडि़त लोग गुस्ल का पानी पीते हैं। और वे सम्बन्धित बीमारियों से स्वास्थ्य लाभ करते हैं।
किछौछा दरगाह की अजमेरी मेला
प्रत्येक वर्ष उर्दू महीना रज्जब में यह मेला आयोजित होता है। राजस्थान के अजमेर शरीफ जाने वाले देशभर के जायरीन लगभग 2 सप्ताह तक किछौछा दरगाह में हाजिरी देकर सूफी संत मखदूम अशरफ की दोवा लेकर वे यहां से रवाना होते हैं। लगभग 2 सप्ताह तक किछौछा दरगाह से लेकर लगभग 5 किमी. की परिधि में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, झारखण्ड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित अन्य प्रान्तों व विभिन्न शहरों के सैकड़ों तीर्थ यात्रियों के बसों का जमावड़ा रहता है। अजमेरी मेला के दौरान ज्यादातर जायरीन टूरिस्ट बसों के माध्यम से ही यहां आते हैं। इन सभी बसों को किछौछा नगर पंचायत कार्यालय के समक्ष बसखारी-जलालपुर मार्ग पर रोका जाता है। बस से उतरने के बाद पैदल चलकर ही अजमेर जाने वाले जायरीन किछौछा दरगाह में पहुंचते हैं। बसों के माध्यम से भारी संख्या में जायरीनों के आने के कारण करीब 2 सप्ताह तक अजमेरी मेला के दौरान किछौछा दरगाह शरीफ में काफी रौनक व चहल-पहल देखी जाती है।
किछौछा दरगाह का नौचन्दी मेला
प्रत्येक उर्दू माह में प्रथम वृहस्पतिवार को किछौछा दरगाह में यह मेला आयोजित होता है। माह के अन्य वृहस्पतिवार के मुकाबले प्रथम वृहस्पतिवार को लगने वाले नौचन्दी मेला को काफी शुभ माना जाता है। दो दिवसीय नौचन्दी मेला का समापन शुक्रवार को होता है। इस मेला को नौचन्दी मेला के अलावा मासिक मेला भी कहते हैं। प्रत्येक नौचन्दी मेला में लगभग एक लाख श्रद्धालुओं का जमावड़ा रहता है। नौचन्दी मेला में शिरकत करने के लिए बुधवार की रात से ही दर्शनार्थियों के आने का सिलसिला शुरू हो जाता है। नौचन्दी मेले में भारत के विभिन्न प्रान्तों-शहरों के अलावा मुख्य रूप से वाराणसी, गाजीपुर, मऊ सहित पूर्वांचल के अन्य जनपदों के श्रद्धालु ही सहभागिता करते हैं। नौचन्दी मेले में टूरिस्ट बसों, ट्रेन, निजी चारपहिया वाहनों के माध्यम से श्रद्धालु यहां आते हैं।
अम्बेडकर नगर जनपद में स्थित प्रसिद्व सूफी सन्त हजरत मखदूम अशरफ की अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध किछौछा दरगाह आज भी हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई समेत विभिन्न धर्मों के लाखों अनुयायियों के लिए भक्ति, आस्था व श्रद्वा का एक ऐसा केन्द्र है जहॉ दुखियारे और परेशान हाल लोग रोते हुए आते है और दर्शन करने के उपरान्त मुस्कुराते हुए अपने घरों को लौटते हैं। इसलिए इस दरगाह को रूहानी (अध्यात्मिक) इलाज का सबसे बडा केन्द्र भी कहा जाता है।
समरकन्द, मुल्तान, दिल्ली, विहार, बंगाल, जौनपुर होते हुए अन्त में हजरत मखदूम अशरफ किछौछा पहुॅंचे यहॉ रहकर मखदूम अशरफ ने अपने जीवनकाल में गरीबों, मजलूमों, बीमार लोगों के घावों जख्मों पर इन्सानियत का मरहम लगाते रहे। उनके आशीर्वाद और अदभुत दिब्य शक्ति से मानसिक रोगी, भूतप्रेत, सफेद दाग, दमा कोढ, समेत अन्य मरीज स्वास्थ्य लाभ करने लगे। ऐसे ही परेशान हाल लोगों के लिए हजरत मखदूम ने किछौछा दरगाह में एक गोल चौकोर तालाब की खुदाई करवाई जिसमें सऊदी अरब के मशहूर कुआं आबेजमजम से सात बार जल मगाकर उसे भरा जिसे आज नीर शरीफ कहा जाता है।
ईरान से भारत आए हजरत मखदूम
ईरान के सिमनान कस्बे में 707 हिजरी (सन 1286 ) में सूफी सन्त मखदूम अशरफ का जन्म हुआ था। बचपन से ही मखदूम साहब फकीरी, साधुत्व व ईश्वर प्रेम में लीन रहा करते थे। जब मखदूम साहब 15 वर्ष के थे त्यों ही उनके बादशाह पिता इब्राहिम का स्वर्गवास हो गया था परिणामस्वरूप आपको उनका उत्तराधिकारी चुना गया कुछ वर्षों तक राजपाट चलाने के बाद आपकी यह दिली मन्शा थी कि अपने छोटे भाई सै़ मोहम्मद को राजसिहांसन सौंप कर ईश्वर की अराधना व तपस्या में लीन हो जाए। ऐसी मान्यता है कि ईरान के सिमनान में एक प्रार्थना सभा स्थल पर वह इबादत कर रहे थे तभी ईश्वरीय सन्देश प्राप्त हुआ कि राज सिहांसन का परित्याग करके ऐ मखदूम अशरफ फकीरी की मंजिल पाने के लिए हिन्दुस्तान की तरफ कूच कर जाओ। 808 हिजरी (सन 1387) में हजरत मखदूम ने मानव जाति की सेवा करते हुए आखिरी सॉस ली और इस दुनिया को अलविदा कहा।
किछौछा दरगाह का सबसे महत्वपूर्ण सालाना (वार्षिक) उर्स मेला
किछौछा दरगाह शरीफ में सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ जहांगीर सिमनानी रहमतुल्लाह अलैह के मजार पर कई मेले लगते हैं। उसमें सबसे महत्वपूर्ण सालाना उर्स मेला माना जाता है। प्रत्येक वर्ष उर्दू माह के मोहर्रम के महीने में इस मेले का आयोजन होता है। यह मेला मोहर्रम माह के 25 तारीख से लेकर 28 मोहर्रम तक चलता है। चूंकि सूफी संत मखदूम अशरफ का देहान्त 28 मोहर्रम को ही हुआ था। इसलिए सालाना उर्स के दौरान 28 मोहर्रम के दिन का काफी महत्व है। परम्परा के अनुसार सालाना उर्स के मौके पर ही सज्जादानशीन तोहफा व उपहार में सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ को मिले सैकड़ों वर्ष पुराने ऐतिहासिक महत्व वाले खिरका मुबारक (झुब्बा नुमा पोशाक) पहनकर व परिधान के अन्य वस्तुओं को धारण करके खिरका पोशी की रश्म को अदा करता है। मखदूम साहब के परिधान का दर्शन करने के लिए उर्स के दौरान देशभर के लाखों श्रद्धालुओं का दरगाह परिसर में मजमा लगा रहता है।
25 से 28 मोहर्रम तक चलने वाले उर्स के दौरान भारत के विभिन्न प्रान्तों-शहरों के अनुमान के मुताबिक लगभग 1 लाख से लेकर 6 लाख तक श्रद्धालु दरगाह परिसर में डेरा डाले रहते हैं। ऐसी मान्यता है कि उर्स के मौके पर सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ की पोशाक सहित अन्य वस्तुओं के दर्शन करके दोवाएं मांगने से मन्नतें-मुरादें पूरी होती हैं।
किछौछा दरगाह में 8 दिवसीय मोहर्रम का मेला
किछौछा दरगाह शरीफ में हजरत मखदूम अशरफ के मजार पर 8 दिवसीय मोहर्रम के रात्रि जुलूस के मेले का आयोजन होता है। उर्दू माह मोहर्रम की 3 तारीख से लेकर 10 मोहर्रम तक यह मेला जारी रहता है। दरगाह शरीफ के आस्ताने (मुख्य स्थान) से मोहर्रम की 3 तारीख से चैकी, अलम, निशान व ताजिए का जुलूस निकलता है। प्रत्येक दिवस रात्रि 9 बजे से आस्ताने से मलंग गेट, गौसिया मस्जिद मार्ग होते हुए अंत में ऐतिहासिक सलामी फाटक के निकट यह जुलूस पहुंचता है। 7 मोहर्रम को दिन में भी आस्ताने से जुलूस निकाला जाता है। 9 मोहर्रम को दरगाह शरीफ से ऐतिहासिक बड़ी ताजिया निकाली जाती है। खास बात यह है कि दरगाह शरीफ की चादर से ही उक्त ताजिए का निर्माण कराया जाता है। 10 मोहर्रम को 8 दिनों तक जारी रहने वाले मोहर्रम के ऐतिहासिक रात्रि जुलूस का समापन होता है। लगभग 627 वर्ष पुराने ऐतिहासिक व प्राचीन पवित्र तालाब ‘‘नीर शरीफ’’ के तट पर दरगाह शरीफ की बड़ी ताजियों के साथ ही अन्य छोटी-बड़ी ताजियों को भी दफनाया जाता है। 8 दिनों तक जारी रहने वाले मोहर्रम के जुलूस में करीब 3 लाख श्रद्धालु सहभागिता करते हैं। आगे-आगे अलम, निशान व ताजिया चला करती हैं। और इसके पीछे-पीछे देशभर के श्रद्धालु मनौती के तौर पर चला करते हैं। 10 मोहर्रम के दिन रेकार्ड तोड़ संख्या में यहां श्रद्धालु पहुंचते हैं। और दरगाह शरीफ के ताजिए के जुलूस का दृश्य देखते ही बनता है।
किछौछा दरगाह का अगहन मेला
किछौछा दरगाह शरीफ में सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ के मजार पर प्रत्येक वर्ष अगहन के मेले में प्रकाश पर्व ‘‘दीपावली’’ से 40 दिवसीय ‘अगहन मेला’ प्रारम्भ होता है। 40 दिनों तक चलने वाले मेले में शहरी श्रद्धालुओं की अपेक्षा ग्रामीणांचलों के तीर्थ यात्री भारी संख्या में सहभागिता करते हैं। उर्स मेला में जहां दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, मुम्बई, हैदराबाद, पटना, लखनऊ सहित अन्य शहरों के श्रद्धालु का आगमन होता है। वहीं, अगहन मेले में बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश के गोण्डा, बहराइच, बस्ती, श्रावस्ती, जौनपुर, मऊ, वाराणसी, बलिया, गाजीपुर, गोरखपुर, चन्दौली, सोनभद्र, मिर्जापुर सहित विभिन्न जनपदों के ग्रामीण श्रद्धालु/देहाती किसान ही मुख्य रूप से सहभागिता करते हैं। 40 दिनांे तक जारी रहने वाले अगहन मेला में दीपावली, एकादशी व प्रत्येक वृहस्पतिवार को मेले का महत्वपूर्ण दिवस माना जाता है।
दीपावली की रात में 627 वर्ष पुराने तालाब के तट पर श्रद्धालु मोमबत्ती, घी के लाखों दीये रोशन करते हैं। खुशबूदार अगरबत्तियों को दरगाह परिसर में जलाते हैं। इस दिवस को ‘‘दीपोत्सव’’ भी कहते हैं। घी के दीये की रोशनी तथा अगरबत्ती की खुशबू व ऊपर उठते धुएं के कारण दरगाह परिसर के आस-पास का पूरा आसमान काले धुंए से पट जाता है। जिसे अगहन मेला का असली तेवर कहा जाता है। अगहन मेला की विशेषता यह है कि धान की कटाई होने के बाद श्रद्धालु दरगाह के भिक्षुओं में दान करने के लिए अपने घर से अनाज, आटा, चावल, दाल सहित अन्य खाद्यान्न सामाग्री लाते हैं। मनौती वाले छोटे बच्चों के सिर का मुण्डन भी खूब करवाया जाता है। मुण्डन के दौरान ग्रामीण महिलाएं भोजपुरी लोकगीत, अवधीगीत भी गाती हैं। कौव्वालियों का भी खूब आयोजन होता है। अगहन मेला में ज्यादातर श्रद्धालु कौव्वाली के साथ ही मखदूम साहब के मजार पर चादर चढ़ाने जाते हैं। यहां ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि अगहन मेले में 80 प्रतिशत हिन्दू समाज के तथा 20 प्रतिशत मुस्लिम समाज के श्रद्धालु की शिरकत करते हैं।
किछौछा दरगाह में दो दिवसीय गुस्ल मुबारक का मेला
किछौछा दरगाह शरीफ में सूफी संत हजरत मखदूम अशरफ के मजार पर दो दिवसीय गुस्ल मुबारक के मेले का भी आयोजन होता है। बहराइच दरगाह, बाराबंकी की देवां शरीफ दरगाह, उत्तरांचल की कलियर शरीफ दरगाह, राजस्थान की अजमेर शरीफ दरगाह सहित अन्य दरगाहों पर प्रायः रौजे मुबारक (समाधि) को गुस्ल दिया जाता है। लेकिन परम्परा के अनुसार किछौछा दरगाह में साल में केवल एक बार मखदूम साहब के मजार को गुस्ल दिया जाता है। जिसे गुस्ल मुबारक कहते हैं। गुस्ल मुबारक के मौके पर दो दिवसीय मेला आयोजित होता है।
गुस्ल मुबारक के पहले दिन आस्ताने पर शाम को जलसा शुरू हो जाता है जलसे के दौरान सभी वक्ता सूफी संत मखदूम अशरफ के जीवन की विस्तृत चर्चा करते हैं। और उनकी शान में कसीदे पढ़े जाते हैं। शाम को शुरू हुआ यह जलसा दूसरे दिन तड़के 4 बजे खत्म होता है। जलसे के समापन के बाद मखदूम साहब के मजार को 40 घड़ा गुलाब व केवड़ा जल से गुस्ल दिया जाता है। मजार शरीफ को गुस्ल देने के बाद जायरीनों में गुस्ल का पानी वितरित किया जाता है। हिन्दू-मुस्लिम, सिक्ख व ईसाई प्रायः सभी धर्मों के लोग गुस्ल का पानी अपने घर ले जाते हैं। और आस्था के रूप में इस जल का सेवन करते हैं। मानसिक बीमारी, सफेद दाग, कोढ़, चरक, दमा, भूत-प्रेत सहित अन्य रोगों के ग्रसित मरीज गुस्ल के पानी का सेवन करता है। यहां ऐसी मान्यता है कि उक्त बीमारियों से पीडि़त लोग गुस्ल का पानी पीते हैं। और वे सम्बन्धित बीमारियों से स्वास्थ्य लाभ करते हैं।
किछौछा दरगाह की अजमेरी मेला
प्रत्येक वर्ष उर्दू महीना रज्जब में यह मेला आयोजित होता है। राजस्थान के अजमेर शरीफ जाने वाले देशभर के जायरीन लगभग 2 सप्ताह तक किछौछा दरगाह में हाजिरी देकर सूफी संत मखदूम अशरफ की दोवा लेकर वे यहां से रवाना होते हैं। लगभग 2 सप्ताह तक किछौछा दरगाह से लेकर लगभग 5 किमी. की परिधि में पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, झारखण्ड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित अन्य प्रान्तों व विभिन्न शहरों के सैकड़ों तीर्थ यात्रियों के बसों का जमावड़ा रहता है। अजमेरी मेला के दौरान ज्यादातर जायरीन टूरिस्ट बसों के माध्यम से ही यहां आते हैं। इन सभी बसों को किछौछा नगर पंचायत कार्यालय के समक्ष बसखारी-जलालपुर मार्ग पर रोका जाता है। बस से उतरने के बाद पैदल चलकर ही अजमेर जाने वाले जायरीन किछौछा दरगाह में पहुंचते हैं। बसों के माध्यम से भारी संख्या में जायरीनों के आने के कारण करीब 2 सप्ताह तक अजमेरी मेला के दौरान किछौछा दरगाह शरीफ में काफी रौनक व चहल-पहल देखी जाती है।
किछौछा दरगाह का नौचन्दी मेला
प्रत्येक उर्दू माह में प्रथम वृहस्पतिवार को किछौछा दरगाह में यह मेला आयोजित होता है। माह के अन्य वृहस्पतिवार के मुकाबले प्रथम वृहस्पतिवार को लगने वाले नौचन्दी मेला को काफी शुभ माना जाता है। दो दिवसीय नौचन्दी मेला का समापन शुक्रवार को होता है। इस मेला को नौचन्दी मेला के अलावा मासिक मेला भी कहते हैं। प्रत्येक नौचन्दी मेला में लगभग एक लाख श्रद्धालुओं का जमावड़ा रहता है। नौचन्दी मेला में शिरकत करने के लिए बुधवार की रात से ही दर्शनार्थियों के आने का सिलसिला शुरू हो जाता है। नौचन्दी मेले में भारत के विभिन्न प्रान्तों-शहरों के अलावा मुख्य रूप से वाराणसी, गाजीपुर, मऊ सहित पूर्वांचल के अन्य जनपदों के श्रद्धालु ही सहभागिता करते हैं। नौचन्दी मेले में टूरिस्ट बसों, ट्रेन, निजी चारपहिया वाहनों के माध्यम से श्रद्धालु यहां आते हैं।
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